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लीलामय

लीला में अभिनय नहीं है। अभिनय है टीवी सीरियलों में। यहाँ भगवान की, स्वरूपों की झाँकी है। रामलीला का तर्क यह है कि जो होते हैं वे अभिनय नहीं करते।

1. पानी में पांच बत्तख तैर रहे थे। तट पर खड़ा आदमी मछली को खाना खिला रहा था। निषादराज भगवान की आरती कर रहे थे। भगवानजी उस पार जाना चाह रहे थे। बच्चे मुहल्लेवाले प्रजा लग रहे थे। कविता गाई जा रही थी। एक आदमी गाय को सानी-पानी दे रहा था। मेला लगा हुआ था। बच्चे को पानी-भगवानजी-मेले-बत्तख-मछलियों-गायों में से हरेक बहुत अच्छा लग रहा था। उसे मालूम नहीं होगा या जो भी हो, वह उस पानी को नदी कहना चाहता था। मैं उससे कहना चाहता था कि ‘नहीं’ तो वह ‘नहीं’ सुनना नहीं चाहता था। वह पानी के बारे में कुछ पुराना सुनना चाहता था। मैं पानी के भविष्य को लेकर परेशान होना चाहता था। वह मुझी को लेकर परेशान होना चाहता था। यह कहने में कि ‘भविष्य में पानी ख़त्म हो जायेगा’, पानी की बड़ी बर्बादी थी। पानी के ख़त्म होने से पहले ही पानी के ख़त्म होने की उदासी में मैं एक अतीत था। पानी के पुराने को जानने में बच्चे की दिलचस्पी पानी का भविष्य थी। कभी-कभी चीज़ें उल्टी दिखाई देती हैं। मैंने पानी को उल्टा करके देखा तो पानी सीधा था । नदी को उल्टा बहा देने से प्रदूषण की समस्या का क्या होगा सोचता हुआ मैं उल्टी गंगा बहाने वाला मुहावरा हो गया था। शहर भर के सीवेज को उल्टा बहा देने से क्या होगा? निपटना दूभर हो जायेगा और क्या? जिन शहरों के किनारे नदियाँ नहीं होतीं, जैसे बंगलोर, वहाँ के लोग क्या टट्टी-पेशाब नहीं करते? आप मान लीजिए कि आपके शहर से होकर कोई नदी नहीं गुज़रती, बस, उसमें मत विसर्जित कीजिए अपनी अशुचि। यह मानते ही कि बनारस के किनारे से नहीं बहती गंगा, गंगा बनारस के किनारे बहने लगेगी। उसकी अनुपस्थिति का यक़ीन ही उसकी उपस्थिति की उम्मीद है। मैं स्मृति की गंगा में नहाकर मुमुक्षु हो जाता हूँ । तुम एक शब्द लिखो साफ़ काग़ज़ पर गंगा। सुबह पाओगे कि वह काग़ज़ फिर से पेड़ हुआ जाता है।

2. लीला शुरू हो गई है। राम, लक्ष्मण और सीता वनवास के लिए जा रहे हैं। राजस्व सूखा पत्ता है। अब गिरा कि तब गिरा। अब श्रृंगवेरपुर दूर नहीं और नन्दीग्रामों की ऋतु क़रीब है। निकलने से ठीक पहले भगवान व्यासजी की ओर देखकर मुस्कराते हैं। व्यासजी भी।

वाक़ई लीला शुरू हो गई है।

3. रामचन्द्र शुक्ल ने पता नहीं रामलीला का केवट प्रसंग देखा था कि नहीं। नहीं तो उनसे पूछा जाता कि भगवान को नाव पर बिठाने से पहले वह कबीर का भजन क्यों गाता था?

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4. मैं पेड़ का अभिनय करना चाहता रहा हूँ। पेड़ की तरह दिखना चाहना भी है मुझमें। लेकिन इतने थोड़े से समय में मैं किस-किस का अभिनय करता फिरूँ? ख़ुद का, नागरिक या दो बच्चों के पिता का, बेटे या दोस्त का। मैं एक लड़की के फूटे हुए माथे का अभिनय करता हूँ जिसकी वजह से उसकी शादी में दिक्क़त आयेगी। एक टीबी-ग्रस्त फेफड़े का भी अभिनय किया है कुछ दिनों तक। उसमें साँस फूलने लगती है।

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5. लीला में अभिनय नहीं है। अभिनय है टीवी सीरियलों में। यहाँ भगवान की, स्वरूपों की झाँकी है। रामलीला का तर्क यह है कि जो होते हैं वे अभिनय नहीं करते।

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Ram Leela in Benaras, Uttar Pradesh Photo: Tapas Shukla

6. भरत बड़े भाई को मनाने आते हैं तो चौदह बरस के वियोग के बाद होने वाले भरतमिलाप के पहले एक बार और भरतमिलाप हो रहा है। अब दो भाई चौदह बरस बाद गले मिलेंगे याने वन जाते ही मिलने का मुहूर्त चौदह वर्षों के लिये स्थगित।

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7. ये भविष्य में होना था कि नहीं होना था। अभी तो होना था। उनकी चोटों और अपने सीने के साथ। लगातार और बेसबब। आदमी होने की ऊब थी। यानी आदमी पुनः अपने होने से ऊब गया।

8. लेकिन तुम्हारे सवाल किसी को बेगाने बनाते हुए न हों, जैसे वे अक्सर होते हैं। और अभी कोई ऐसा सवाल मत पूछना जिससे पता लगे कि तुम शामिल नहीं थे या उपस्थित नहीं थे। शामिल न होने का पश्चाताप मौन में है और कहीं से भी, किसी भी छूटे हुए बिन्दु से शामिल हो जाओ, तुम्हारे जवाब अपने आप, कभी न कभी, तुम पर छा जायेंगे और बरस कर तुम्हें भिगो देंगे। तुम्हारे ऊपर ज़ाहिर हो जायेंगे।

सच कहने में इतनी बाधाएँ थी कि बाधाओं के बारे में बताना ही सच बताना हो गया था।

9. एक सज्जन हैं। अतिवृद्ध। रामलीला के दौरान उनके कंधे पर मृदंग टॅंगा रहता है जिसे वह ख़ुद नहीं बजाते। उन्हें मृदंग बजाना आता भी नहीं। मृदंग के लिये उनका कंधा ही प्रासंगिक है, हथेली और उंगलियाँ नहीं। जो लीलाएँ एक से अधिक जगहों पर या दो जगहों के दरम्यान चलते-चलते होती हैं वहाँ उनका कंधा काम आता है। तब मृदंग उनके कंधों पर टंगा रहता है और दूसरा आदमी उसे बजाता है। तब वह कंधा एक चरित्र बन जाता है - एक मूर्तिमान स्वरूप। उसकी वजह से ध्वनि होती है। उसकी मेहनत से संगत संभव होती है। मानस की पंक्तियों के गान में उस कंधे का आकार है। मैं उन सज्जन को करीब बीस साल से जानता हूँ, लेकिन उनके कंधे को कितना जानता हूँ ? कोई भी उस कंधे को कितना जानता है? रामलीला के सुदूर विराट अतीत में उस कंधे को हम कहाँ रखते हैं? और इन कंधों के बग़ैर रामलीला का गुणगान कितना वाजिब होगा?

परम्परा अक्सर ऐसी ही मुश्किल है।

10. लीला समय के ठीक बीच में घटती घटनाओं में नहीं, उनकी बग़ल में सम्पन्न होती रही है। इस तरह अनुमान लगाना आज कुछ विचित्र, कुछ काव्यात्मक लगता है कि कम से कम साढ़े चार सौ साल पुरानी यह लीला इतिहास के ज़रूरी मौक़ों पर, ख़ास जगहों पर क्या करती होगी? अंग्रेज़ों के बनारस समेत पूरे देश पर कब्ज़ा करते समय भी राम सूपर्णखा की नाक काट रहे होंगे, चन्द्रशेखर आज़ाद जब महात्मा गाँधी की जय-जयकार करते हुए अपनी पीठ पर कोड़े खा रहे थे, तब भी रावण सीता का अपहरण कर रहा होगा। 1942 के भारत छोड़ों के वक़्त भी राम अयोध्या छोड़कर जा रहे होंगे। इसी तरह आज़ाद भारत की प्रमुख घटनाओं के मद्देनज़र भी लीला को सोचा जा सकता है। इस बीच लीला लगातार होती रही - भले ही कुछ दूरी पर, याने जिन घटनाओं, लोगों, परिस्थितियों के ज़रिये इतिहास ख़ुद को घटित कर रहा था या कर रहा है, लीला उनके समानान्तर रहकर हो रही थी या हो रही है - शायद उनसे दूर रहकर ही या उनसे दूर रहकर भी। जैसे इतिहास के यन्त्र से अलग एक छोटा, फालतू-सा लेकिन लगातार चलता पुर्जा। एक कुटीर उद्योग। धाराप्रवाह के बरअक्स एक मौन तटस्थता।

Ram Leela in Benaras, Uttar Pradesh Tapas Shukla

11. रामलीला ने स्वयं को वस्तुओं पर कम से कम निर्भर किया है। जो वस्तुएँ वहाँ हैं, ठोस और पारंपरिक हैं। वे अनिवार्य भी हैं। उन्हें किसी दूसरी वस्तु या युक्ति से ‘रिप्लेस’ नहीं किया जा सकता। उन वस्तुओं की जड़ें लीला के समस्त सन्दर्भों, लीला से जुड़े लोगों, लीला से जुड़े मृतकों, लीला की स्मृति और समाज में लीला के व्यापक विस्मरण तक फैल गई हैं। उन ‘कम’ वस्तुओं का, लीला की ही तरह, व्यक्तित्व है। ये वही वस्तुएँ हैं जो थीं और हमेशा, लगभग हमेशा से हैं। ये वे वस्तुएँ नहीं हैं जो पहले नहीं थीं और अब हो गई हैं। मसलन, लीला में बैकड्राप नहीं है। एक बार किसी आधुनिक नाट्यविद ने इस लीला के संयोजकों से पूछा कि अगर आप लीला में पर्दों का इस्तेमाल नहीं करते तो एक दृश्य को दूसरे दृश्य से अलग कैसे करते हैं और रंगक्षेत्र (थियेट्रिकल स्पेस) को दूसरे आमफ़हम स्पेसेज़ से अलग कैसे करते हैं? जवाब में लीला संयोजकों ने अपने कामकाज जैसी सरल और बुनियादी बातें कहीं। उन्होंने कहा कि हमारी लीला में पर्दा तो है, बस थोड़ा बड़ा और थोड़ा दूर है। वह पर्दा दरअसल आकाश का पर्दा है और हमारा अलग से कोई स्पेस नहीं है जो ज़्यादा नैतिक या ज़्यादा पवित्र हो। समूची सृष्टि ही हमारे भगवान जी की लीला स्थली है- उनका अपना स्पेस। इसलिए हम स्पेस को स्याह-सफ़ेद में विभाजित करके देख नहीं पाते हैं। हम स्पेस को संक्षिप्त और विशिष्ट भी बना नहीं पाते।

12. यह आश्चर्य है कि आधुनिक रंगप्रयत्नों ने रामलीला की पारंपरीणता से कुछ ख़ास नहीं सीखा, बल्कि कुछ नहीं सीखा। यह दुर्भाग्य भारतेन्दु की उपस्थिति के बावजूद घटित हुआ और बनारस में घटित हुआ। अगर महाकाव्यात्मकता के मंचन की रामलीला जैसी उदार, भगीरथ कोशिश के साथ आधुनिकता की स्वस्थ अंतर्क्रिया सम्भव हुई होती तो जयशंकर ‘प्रसाद’ के नाटकों को अनभिनेय इत्यादि बताकर टालने का पलायन भी न हुआ होता। तब आधुनिक रंगमंच इतना ‘यथार्थवादी’, इतना अभिनय-निर्भर, इतना पूर्वनियोजित, इतना पूर्वानुमेय न हुआ होता। तब रंगमंच में जादू, रहस्य, कल्पना और अप्रत्याशित के लिए ज़्यादा जगह होती। तब ‘मानस’ की तरह दूसरी कविताओं को भी नाटक माना जा सकता। तब नाटक में ‘टेक्स्ट’ की ज़रूरत कुछ कम होती। अगर हिन्दी आधुनिकताएँ रामलीला से सीख पातीं तो आज की कविता कुछ ज़्यादा नाटक होती। और कुछ कम कविता।

13. नयी जिज्ञासाएँ पूछती हैं कि आधुनिक थियेटर की तरह लीला एक ही जगह पर क्यों नहीं होती? वह इधर-उधर घूम-घूमकर, एक से दूसरी जगह जाकर, दो जगहों के बीच के सफ़र में भीड़, ट्रैफिक, शोर, साधारणता और अन्य दिक्कतों के धक्के खाकर क्यों होती है? इसका एक जवाब यह है कि मुगल काल और अंग्रेज़ों के ज़माने में औरतों पर जिस तरह की बन्दिशें थीं उनके भीतर रहकर वे किसी सार्वजनिक स्थल पर जाकर मेला-तमाशा नहीं देख सकती थीं। उनके लिए ही, उनके मनोरंजन की ख़ातिर ही ये लीलाएं अपने स्थायित्व, अपनी रिहाइश में से किसी जुलूस की तरह, किसी प्रभातफेरी की तरह या बंजारों के किसी समूह की तरह निकलकर भटकने लगी होंगी। इसके बाद औरतें घरों, छतों, मुंडेरों और बरामदों से लीला के कुछ हिस्से, लीला की झाँकी देख सकती थीं। अपने घर अर्थात् मंच से लीला के निर्वासन का तर्क स्त्री की कैद को कुछ कम करने की कोशिश में भी है।

14. सूपर्णखा की नाक काटने का प्रसंग सभी लीलाओं में जोर-शोर से मनाया जाता है। सूपर्णखा की भूमिका हिजड़ा निभाता है। एक कटोरी में हिजड़ा औरतों के पाँव में लगने वाला महावर लिये खड़ा रहता है। जैसे ही लक्ष्मण अपने तीर का स्पर्श (स्पर्श भर) उसकी नाक से कराते हैं, नाक कट जाती है और कटोरी में रखा महावर खून हो जाता है और सूपर्णखा उसे चीख-पुकार, रोष और विलाप के साथ मिलाकर चारों ओर फेकनें लगती है। फिर बड़ा भारी जुलूस निकलता है - गाजेबाजे और तामझाम के साथ। यह जुलूस कई किलोमीटर लम्बा होता है। बहुत से हाथी, ऊँट, घोड़े, रथ और काली का मुखौटा पहने तलवारबाज़ आगे-आगे चलते हैं। इनके भी आगे खर और दूषण के दैत्याकार पुतले। पीछे बैलगाड़ियों, ट्रालियों, ट्रेक्टरों और ट्रकों पर मिथकों, किंवदंतियों, पुराकथाओं और समकालीन जीवन-समस्याओं पर आधारित झाँकियाँ। ये सैकड़ों होती हैं। अधिकतर झाँकियों में बच्चे ही भूमिकाओं में होते हैं। यह लीला आधी रात से शुरू होती है और सुबह तक चलती है। यह रतजगे की लीला है। लीला-क्षेत्र में पड़ने वाले घर इस रात मित्रों, रिश्तेदारों, ससुराल से पधारी बहनों, बेटियों और उनके बच्चों का उपनिवेश बन जाते हैं। कुछ लोग खिड़कियों और मुंडेरों की सोहबत में नक्कटैया देखना पसंद करते हैं और कुछ मेले में पैदल भटकते हुए। अरसे तक यह त्योहार प्रेमी-प्रेमिकाओं की आदर्श स्थली बना रहा। बाद में कुछ ज़्यादा ही उद्दाम और उत्तेजक अवसर प्रेम के पैदा हो गये तो इस मोर्चे पर भी नक्कटैया पीछे छूट गई। जुलूस में शामिल झाँकियों में हास्य और व्यंग्य की केन्द्रीयता होती है। कुछ जानकार लोगों का कहना है कि पराधीनता के दौर में ब्रिटिश राज के अन्यायों की हॅंसी उड़ाने के लिए इन झाँकियों को लीला में जोड़ा गया। लीला के विराट में ये आधुनिक और विद्रोही प्रयत्न बहुत सहजता से खप गये हैं। इनकी वजह से लीला का एक भिन्न पाठ भी तैयार होता है।

Ram Leela in Benaras, Uttar Pradesh Tapas Shukla

15. मित्र साथ था और भरतमिलाप की लीला हो रही थी। बनारस की सभ्यता की लोकप्रियता का स्मारक लक्खी मेला। जिन मेलों में अनिवार्यतः लाखों लोग आते हैं, स्थानीय परम्परा में उन्हें लक्खी मेला कहा जाता है। पन्द्रह मिनट की लीला स्थानीय पुलिस और प्रशासन की तैयारियों की परीक्षा लेती हुई सम्भव होती है। चौदह वर्ष के वियोग को पार कर भाई गले मिले। लोगों ने ‘बोल दे राजा रामचन्द्र की जय’ और ‘हर हर महादेव’ का उद्घोष किया। लोगों ने ‘जय श्री राम’ का उद्घोष नहीं किया। हज़ारों यादवों के कंधे पर आरूढ़ होकर पुष्पक विमान नन्दीग्राम से अयोध्या की ओर उड़ता हुआ-सा चला। मित्र ने गर्वोक्ति के से लहज़े में कहा : ''ओसामा बिन लादेन ने 2015 तक पूरी दुनिया को मुसलमान बनाने की चुनौती दी है। क्या यह मुमकिन है?'' सवाल वाहियात था और मज़ाक या डांट में ही उत्तर दिया जा सकता था। मैंने मज़ाक किया - '‘हम सब लोग तो पहले से ही मुसलमान हैं। हमें कोई क्या बनायेगा?'' बहरहाल, हम विमान के पीछे की विराट भीड़ का हिस्सा होकर आगे चले और मित्र के सवाल का उत्तर सामने आ गया। मुसलमानों की विपुल संख्या मेला देखकर निकल रही थी। चारों ओर टोपियाँ और लुंगियां। मित्र झेंपते हुए मुस्करा रहे थे। उनकी चिढ़ इस हिस्सेदारी के आगे झूठ हो रही थी।

16. लीला और प्रकारान्तर से मानस के क़रीब होने में अद्वैत का आकर्षण है। अगुण और सगुण के बीच, ज्ञान और भक्ति के बीच, शंकर और राम के बीच, होने और होने के अभिनय के बीच।

17. जानकारों को मानस-गान बेसुरा लग सकता है। वहाँ पर्याप्त रफनेस और पराक्रम है भी। कुछ चीखना, कुछ बहरों को सुना डालने की कशिश। तर्क के धरातल पर एक बेसुरापन कभी-भी उसमें साबित किया जा सकता है। लेकिन अगर कानों में थोड़ी बहक हो और कुछ तर्कातीत सुनने का हुनर हो तो वहाँ खजाना है। वहाँ निरे-वर्तमानकालिक सुरीलेपन के फासिल्स हैं। एक आदिम आर्केस्ट्रा के जीवाश्म। और इस प्रकार बेसुरे होते जाने की प्रक्रियाएँ। बीच की धूल। रास्ते का शोर। दुर्घटनाएँ। इस संगीत से इश्क करना आसान नहीं है। यह किसी शुद्ध संगीत का अपभ्रंश है। उसे सुनना और सराहना मूल को खोजने की मेहनत है।

18. लीला के संचालन में आने वाली दिक्कतें विचित्र हैं। पैसे और संसाधन इकट्ठा करना एक चैलेंज है। हिन्दू उच्च वर्गों में रामलीला के प्रति उपेक्षाभाव है। इसी समय होने वाली दुर्गापूजाएँ ज़्यादा चमकीली और उत्तेजक हैं। वे परम फैशनेबल हैं और वक्त के साथ चलने में माहिर। सत्ता-राजनीति और कारपोरेट सेक्टर ने उनके भीतर अपने अभेद्य लालची ठिकाने बना लिये हैं। उनके संगठन में माफिया का बोलबाला है। लोग उनसे डरते हैं और यह वक़्त ऐसा है जिसमें लोग जिस चीज़ से डरते हैं उसी को पसंद करते घूमते हैं। दुर्गापूजाएँ, अजीब ट्रेजिडी है, कि बदनाम होकर प्रतिष्ठित हैं। रामलीला से उनका कोई प्रत्यक्ष टकराव नहीं है, लेकिन टकराव प्रत्यक्ष कहाँ होते हैं? लीलासमितियाँ प्राचीन हैं। उन्हें राजाओं, रईसों और महाजनों से लीला करने के लिए भूखण्ड मिले हैं। उन्हें छीन लेने और उन पर कब्जा कर लेने के षडयंत्र लगातार होते रहे हैं। लेकिन लीलाएँ खुद को बचाना और बढ़ाना जानती हैं। सबसे प्राचीन और समृद्ध रामलीला समिति ने नगर के सर्वाधिक प्रतिष्ठित वकील को अपना सचिव बना लिया है।

यह भी एक लीला है।

19. रामकथा में एक बद्तमीज पक्षी है, जयन्त। राम उसकी आँखें फोड़ देते हैं। तुलसी के ‘मर्यादित’ टेक्स्ट में यह प्रसंग कुछ ऐसे घटित होता है कि वह पक्षी सीताजी के चरणों को अपनी चोंच के प्रहार से घायल कर देता है। वाल्मिकी के यहाँ पक्षी ज़्यादा उद्धत है। वह सीता के स्तनों को छलनी करता है। बहरहाल, यह लीला उस पक्षी की चंचलता की तरह घटित होती है। ढलती दोपहर में एक बड़े मैदान में लोग ख़ासकर नौजवान और किशोर - हाथों में पत्थर लेकर नेत्र-भंग की लीला होने का इंतज़ार करते हैं। राम जयन्त के मुखौटे की आँखों में जैसे ही तीर का स्पर्श (स्पर्श-मात्र) कराते हैं, जनसमूह उस बदमाश पक्षी पर पत्थरों की बारिश करने लगता है। जयन्त का मुखौटा पहना आदमी अक्सर लहूलुहान हो जाता है। कई बार वह जान बचाने के लिए भागता हुआ पुलिस थाने में छिप जाता है।

इसी बीच वह पक्षी हेल्मेट पहनकर लीला में आने लगा है।

20. प्रयोग ‘एब्सोल्यूट’ नहीं है। वह हमेशा परम्परा की सापेक्षिकता में घटित होता है। प्रयोग से जिस चीज़ पर सबसे ज़्यादा असर पड़ता है उसका भी नाम परंपरा है। रामलीला के भीतर न जाने कितने प्रयोग उपस्थित हैं और उतने ही ज़्यादा प्रयोगों की संभावनाएँ। हरेक आगामी स्पंदन की जगह वहाँ है और उसके परिसर में पर्याप्त बड़प्पन है। वहाँ भीड़-भड़क्के और शोरगुल का आलम है और नए का स्वागत करने की वत्सल ललक। वह छोटे से छोटे नवाचार से आपादमस्तक थरथरा जाती है और झूमते हुए उसे ख़ुद में शामिल कर लेती है। उसके प्रकांड अतीत के तथ्य देखकर लग सकता है कि वह कोई स्थिर और बंद चीज़ है। लेकिन रामलीला के साक्ष्य से साबित होता है कि ऐसा है नहीं। ‘इम्प्रोवाइजेशन’ के लिए लीला के भीतर मनमानी जगहें हैं।

मसलन्, एक शाम एक पिता अपनी दो साल की बच्ची के साथ लीला में पहुँचे। रावण का दरबार लगा हुआ था और कुछ ही देर में अंगद अपने पाँव जमाकर उसे हिला-भर देने की चुनौती वहाँ उपस्थित राक्षसों को देने वाला था। यह लीला उसी मैदान में होती है जहाँ राम-रावण युद्ध होता है। बगल में युद्धस्थल निर्माण चल रहा था। मूँगफली, गुब्बारों और गरीब खिलौनों की दुकानें लगी हुईं थी। थोड़े सयाने बच्चों का मन इस ठहरी हुई दरबारी लीला में नहीं लग रहा होगा इसलिए वे दौड़धूप के खेल खेल रहे थे। रामायणियों का दल मानस की प्रसंगानुकूल पंक्तियाँ गा रहा था। पिता गोद की बच्ची के साथ रावण-दरबार के करीब पहुँचते गये। एक ही आसन पर तीन राक्षस विराजमान थे। बीच वाला भव्य है इसलिए वही रावण है।

तो सिर से कमर तक कपड़े का शानदार चेहरा पहने रावण की निगाहें बच्ची से मिलीं। छोटी बच्ची रावण की आँखों की चंचल बदमाशी को समझ नहीं सकी होगी। इसलिए उस पर कोई असर नहीं दिखा। वह डिजिटल ज़माने की बच्ची - तमाम कार्टून चैनल्स पर इस गरीबतर रावण से न जाने कितने गुना वीभत्स डरावने आकार देखने की अभ्यस्त। लीला के रावण का किंचित अपमान हुआ। वह धीरे से उठा। यह बड़ा एकान्त उठाना था। जैसे सृष्टि में कहीं भी इसे नोटिस न किया गया हो। एक सर्वथा अलक्षित मानवीय क्रिया। सिर्फ़ एक पिता और एक बच्ची सरीखे दो ग़ैर ज़रूरी दर्शकों के सामने घटित होता रंगकर्म। मूल कथा से दूर, मूल कथा से भिन्न, कहानी की वयस्क केन्द्रीयता के विरूद्ध ‘अनाख्यान’ के पक्ष में एक किशोर उत्पात। बहरहाल, तलवारधारी रावण ने गोद की बच्ची को दौड़ा लिया। और इस बार बच्ची डर गई। यह संवेदना का ‘वर्चुअल टूर’ नहीं था, जीवन-वास्तव था। यह कला-वास्तव थी।

21. धर्म के विभिन्न मतांतर, परस्पर विरोधी जीवनदृष्टियाँ और भाँति-भाँति के पक्ष-प्रतिपक्ष रामलीला नामक सांस्कृतिक अभियान में साथ-साथ सक्रिय हैं। यह महान तथ्य सुस्थापित है लेकिन इसे अभिनव उदाहरणों के साथ बार-बार दुहराने की ज़रूरत है। मौनीबाबा की रामलीला में मेघनाथ की भूमिका पाँचों वक़्त का नमाज़ी एक मुसलमान अदा करता है। साल भर ‘राधे-राधे’ जपने वाले बल्लभाचार्य संप्रदाय के अनुयायी, गोपाल जी के भक्त, नित्यप्रति गोपाल मंदिर की परिक्रमा करने वाले और सम्भवतः वर्ष में एक बार भी विश्वनाथ जी की ओर रुख़ न करने वाले कट्टर पुष्टिमार्गी बाईस दिनों के लिये राम के हो जाते हैं। यों, ऐसे सारे परस्पर उलझे हुए संदर्भ रामलीला के साथ रहकर, लेकिन उसके समानान्तर, एक और लीलामय जीवनलीला सम्भव करते हैं।

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