Vishesh

मरने का अधिकार

एक बहस जो बरसों से जिंदा है, पर अस्पष्ट, संदिग्ध

भारत में मरने का अधिकार
info_icon

खबर यह थी  

उसे मुर्दाघर ले जाया गया है  

पिछली रात– जब अर्द्ध-चंद्रमा डूब चूका था  

नये वसंत की अंधेरी रात में 

उसे मर जाने की चाहत हुई 

पत्नी उसके बगल सोई– उसका बच्चा भी  

प्रेम था निकट, और आशा भी– कौन सी रूह, 

फिर, 

चांदनी में उसे  भयभीत कर गई– वो जगा क्यों? 

या, वो सोया ही नहीं सदियों से– अब आराम करता है मुर्दाघर में।  

क्या इसी नींद की इच्छा थी उसे? 

बंगाली कवि जीबनानंद दास ने 1938 में अपनी कविता 'आट बोछोर अगेर एकदिन' में ये पूछते हैं, जिसमें वो एक आदमी की कहानी सुनाते हैं, जो अकेला, घने अंधेरे में चन्द्रमा ढले पीपल के पेड़ के पास जाता है रस्सियाँ लेकर, "जानते हुए कि मनुष्य पक्षियों और ड्रैगनफ्लाई की ज़िंदगियों को नहीं जानते।" वो एक ऐसे आदमी की कहानी सुनाते हैं जिसे किसी महिला का प्यार और शादीशुदा जीवन की इच्छाएँ सब मिलीं। उसे कभी कोई वित्तीय संकट भी न था। क्या ये जीवन की सामान्यता है जिसने उसे मुर्दाघर में लाकर छोड़ दिया? कवि का संकेत कुछ ऐसा ही है। 

मुझे पता है 

औरतों का दिल–प्रेम–बच्चा–घर–सब कुछ नहीं है; 

न सम्पति, उपलब्धि, या समृद्धि– 

हमारे खून में एक संकटग्रस्त आश्चर्य है 

जो खेलता है  

थकता है 

हमें थका देता है; 

वह थकावट गायब है 

मुर्दाघर में; 

इसलिए वह पड़ा है 

मुर्दाघर की मेज़ पर 

अपनी पीठ के बल। 

कोई क्यों अपने बहुमूल्य जीवन को समाप्त कर लेता है, वह जीवन जिसे वापस नहीं लाया जा सकता, इस सवाल ने दार्शनिकों और लेखकों के जेहन को सदियों से परेशान किया है। पांचवी सदी बी.सी. के ग्रीक फिलोसोफर एम्पेडोक्लेस के बारे में कहा जाता है कि वह माउंट एट्ना के ज्वालामुखी में कूद गया, ये सोचते हुए कि मृत्यु एक रूपांतरण है। 18वीं शताब्दी के जर्मन लेखक गरथे के उपन्यास, युवा वेर्थर के दुःख (1774) में, मुख्य किरदार, एक संवेदनशील युवा कलाकार, अपने सिर में गोली मार लेता है, जब उसे ऐसा लगता है कि उसकी मौत ही वह एकमात्र तरीका है जिससे वह खुद को उस प्रेम त्रिकोण से मुक्त कर सकता है जिसमें वह फंसा हुआ है। 

Advertisement

"मुझे नहीं लगता कि दो लोग इतने खुश हो सकते हैं, जितने हम रहे हैं," वर्जीनिया वूल्फ ने अपने सुसाइड  नोट को इस टिप्पणी से समाप्त किया, अपनी सभी खुशियों का श्रेय अपने पति लियोनार्ड को देते हुए। वह अपनी मानसिक बीमारी के एक और दौर की शुरुआत का आभास कर रही थी, और उसे डर था कि यह उसके और उसके पति के बर्दाश्त करने के लिए बहुत अधिक होगा। यह वूल्फ की तीसरी कोशिश थी आत्महत्या की। उसने लिखा, "मैं अब और नहीं लड़ सकती।" उसकी चिट्ठी में उसकी बीमारी से प्रभावित होते उसके पति के काम की वजह से एक शर्मिंदगी जाहिर होती है। 

Advertisement

साधारणतया तो ये बात समझी जाती ही है कि लोग अक्सर अपनी जिंदगी तभी ख़त्म करना चाहते हैं जब उनके लिए कुछ बर्दाश्त करना अंसभव सा हो जाता है, और कई देशों में इसे एक अपराध माना जाता है, शायद इसलिए कि जीवन और मृत्यु ईश्वर के हाथों में मानी जाती है, आत्महत्या उसमें एक हस्तक्षेप प्रतीत होता है। एक असफल प्रयास, इसलिए, ना केवल एक सामाजिक कलंक लेकर आता है, बल्कि कानूनी परेशानियाँ भी। ये बात ये अड़चन भी पैदा करती है कोई अगर आत्महत्या का विचार कर रहा हो तो उसे इसमें कोई मदद मिले।  

Advertisement

क्या आत्महत्या ईश्वर को नकार देना है? क्या यह वो खेल खेलने से इंकार है जिसके नियम दूसरों द्वारा तय किए गए हैं? क्या यह दूसरों पर निर्भर जीवन जीने से इंकार है? या, क्या यह जिम्मेदारियों से भाग जाने का एक तरीका है, किसी पर निर्भर लोगों के साथ एक धोखा, स्वार्थ से भरा कदम है? 

Advertisement

यह चाहे अपने आप में एक विरोध हो या हाथ खड़े कर देना, आत्महत्या से हुई मौत की बारीकियों के बारे में हमें कभी भी पता नहीं चल सकता। हो सकता है कोई मानता हो कि अपनी जिंदगी को समाप्त करने की क्षमता मनुष्य को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ बनाती है? जीने का अधिकार नहीं जीने के अधिकार को कैसे बाधित कर सकता है? 

Advertisement

बॉम्बे उच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने 1987 में मरने के अधिकार के प्रश्न को समझते हुए, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 309 को असंविधानिक घोषित कर दिया। 

Advertisement

पीठ ने कहा, "भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बोलने और चुप रहने की स्वतंत्रता शामिल है। संगठन और चलने की स्वतंत्रता भी इसी तरह किसी संगठन में शामिल नहीं होने और कहीं भी नहीं जाने की स्वतंत्रता में शामिल है... अगर ऐसा है, तो तार्किक रूप से यह समझा जाना चाहिए कि अनुच्छेद 21 द्वारा मान्यता प्राप्त जीने का अधिकार भी नहीं जीने के अधिकार या जीने के लिए मजबूर नहीं किये जाने के अधिकार को जगह देगा"। 

Advertisement

1994 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की दो न्यायधीशों की पीठ ने इसको स्वीकार किया। पीठ ने कहा, "अगर किसी व्यक्ति को जीने का अधिकार है, तो प्रश्न यह है कि क्या उसे जीने का अधिकार नहीं है," और आगे कहा, "हम कहते हैं कि जिसके बारे में अनुच्छेद 21 (भारतीय संविधान) की बात की जाती है, उसकी रौशनी में कहा जा सकता है कि यह एक मजबूर जीवन नहीं जीने का अधिकार लाता है।" 

Advertisement

शीर्ष न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि IPC 309 "एक क्रूर और अतार्किक प्रावधान" था, जिसे "हमारे दंड संहिता को मानवीकृत करने के लिए कानून की किताब से मिटा दिया जाना चाहिए।" न्यायाधीशों ने आशा जताई कि उनका निर्णय "केवल मानवीकरण का कारण" नहीं, बल्कि वैश्वीकरण का भी कारण बनेगा, "क्योंकि धारा 309 को मिटा कर, हम क्रिमिनल लॉ के इस भाग को वैश्विक तरंगदैर्ध्य में लाएंगे।" 

Advertisement

यूरोपीय समाजों ने 18वीं शताब्दी के दूसरे अर्द्ध से उन लोगों के प्रति एक मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जिनकी खुद को मारने की कोशिश असफल रही थी – जो जीवित बच गए, शायद और अधिक पीड़ा सहन करने के लिए। जर्मनी पहला देश था जिसने 1751 में आत्महत्या की कोशिश को गैर-अपराधिकृत किया और 1789 में फ्रांसीसी क्रांति के बाद अधिकांश देशों और यूरोप और उत्तर अमेरिका ने भी इसका अनुसरण किया। लेकिन ब्रिटेन ने नहीं। आत्महत्या की कोशिश में असफल होना, किसी को भी पुलिस स्टेशन, अदालत, और जेल में पंहुचा सकता था। और ये किसी भी ब्रिटिश उपनिवेश में लागू था।  

Advertisement

"यह एक हैवानियत से भरी प्रक्रिया लगती है, एक ऐसे व्यक्ति पर और अधिक पीड़ा डालने की जो पहले ही जीवन को इतना असहनीय पता आया है, उसकी खुशियों की संभावनाएँ इतनी संकरी, कि वह जीवन का अंत करने के लिए दर्द और मौत का सामना करने के लिए तैयार है," अंग्रेजी लेखक हेनरी रोमिली फेडेन ने अपनी 1938 की पुस्तक, 'आत्महत्या: एक सामाजिक और ऐतिहासिक अध्ययन' में लिखा। 

Advertisement

यह उद्धरण था जिसे भारत की कानून आयोग की 42वीं रिपोर्ट ने 1971 में उपयोग किया जब वे IPC की धारा 309 की समाप्ति की सिफारिश कर रहे थे, जिसमें आत्महत्या की कोशिश पर एक वर्ष तक की कैद और/या जुर्माना का प्रावधान है। ब्रिटेन के अंततः आत्महत्या की कोशिश को गैर-अपराधिकृत करने के करीब दस साल बाद ये सिफारिश आई। 

Advertisement

भारत में 1971 में कांग्रेस की सरकार ने 42वीं कानून आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया। 1978 में जनता पार्टी सरकार सिफारिशों को लागू करने के लिए एक विधेयक लाई। यह राज्यसभा में पास हुआ, लेकिन लोकसभा इसे पास करने से पहले विघटित हो गया और विधेयक प्रस्ताव बाद में विघटित हो गया।  

Advertisement

विवाद जीवित रहा, खासकर दो उच्च न्यायालय के आदेशों के साथ, एक 1985 में जस्टिस रजिंदर सच्चर द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय की विभाजन पीठ द्वारा प्रदान किया गया और दूसरा पहले ही 1987 में बंबई उच्च न्यायालय का जो निर्णय था। 

Advertisement

दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा को "हमारे जैसे मानवीय समाज का एक कालदोष" कहा। न्यायाधीश स्पष्ट रूप से नाराज और परेशान थे, जो आरोपी के साथ हुआ – युवक को उसकी कथित आत्महत्या की कोशिश के दिन ही गिरफ्तार किया गया था इस आरोप पर कि वह कीटनाशक पीकर खुद को मारने की कोशिश कर रहा था। पुलिस ने आठ महीने बाद उस पर आरोप पत्र दायर किया, मुकदमा दस महीने बाद शुरू हुआ, और मैजिस्ट्रेट ने उसे बरी कर दिया। पुलिस ने इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी। 

Advertisement

"परिणाम यह है कि एक युवक जो इतनी निराशा महसूस कर रहा था और अपने जीवन को समाप्त करने की कोशिश कर रहा था, अगर वह सफल होता, तो वह मानव दंड से बच जाता," पीठ ने कहा।  

Advertisement

हालांकि यह प्रावधान की संविधानिकता पर टिप्पणी नहीं करता था, बंबई उच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन में पाते हुए इस धारा को असंविधानिक घोषित किया। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने, हालांकि, 1988 में प्रावधान को मान्यता दी। 

Advertisement

इन सभी चर्चाओं को 1994 में ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आत्महत्या की कोशिश को गैर-अपराधिकृत कर दिया। हालांकि, न्यायाधीशों की अपने निर्णय से जुड़ी सारी उम्मीदें जल्द ही टूट गईं। क्योंकि, निर्णय के तुरंत बाद, पंजाब के निवासी हरबंस सिंह और उनकी पत्नी जियान कौर, जिन्होंने अपनी बहू, कुलवंत कौर, को आत्महत्या के लिए मजबूर किया और भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत सजा पाई, ने IPC धारा की संविधानिकता को चुनौती दी। 

Advertisement

उन्होंने ये तर्क दिया कि अगर अदालत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत 'मरने का अधिकार' को एक संविधानिक अधिकार मानती है, तो आत्महत्या के लिए प्रोत्साहित करना एक अपराधिक गतिविधि नहीं हो सकती। "किसी भी व्यक्ति द्वारा दूसरे की आत्महत्या को प्रोत्साहित करना केवल अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार के अमल में सहायक है," सर्वोच्च न्यायालय के 21 मार्च, 1996 के निर्णय में उनके इस तर्क को पढ़ा गया। 

Advertisement

मामला सुनने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1996 में दो न्यायाधीशों की पीठ के निर्णय को पलट दिया और IPC की धारा 309 को सांविधानिक घोषित किया। पीठ ने आत्महत्या को अपराध मानने पर विचार नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपना ध्यान अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 पर केंद्रित किया – क्या धारा 309 IPC उनका उल्लंघन करती है। उन्होंने निष्कर्ष दिया कि ऐसा नहीं है। 

Advertisement

अदालत ने 'मरने का अधिकार' पर तर्क को भी खारिज किया। पीठ ने कहा, "'जीवन का अधिकार' अनुच्छेद 21 में निहित एक स्वाभाविक अधिकार है, लेकिन आत्महत्या जीवन का अस्वाभाविक अंत है और इसलिए जीवन के अधिकार की अवधारणा के साथ असंगत और बेमेल है"। 

Advertisement

इसके उपरांत जल्द ही, 1997 में अगस्त में प्रस्तुत कानून आयोग की 156वीं रिपोर्ट ने IPC की धारा 309 को बनाए रखने की सिफारिश की। यह एक नए तर्क को साझा करता है। इसने कहा, "नारकोटिक ड्रग-ट्रैफिकिंग अपराधों, देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकवाद, मानव बम आदि जैसे प्रसार आत्महत्या की कोशिश को अपराध मानने की जरूरत पर पुनर्विचार करने की दिशा में प्रेरित करते हैं"। 

Advertisement

ये सुनने में थोड़ा अजीब, यहाँ तक कि हास्यास्पद लगता है, जबकि ऐसे गंभीर अपराधों के लिए सजा के प्रावधानों की कोई कमी नहीं है। उसके सामने यह एक मामूली प्रावधान प्रतीत होता है, जो की सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा, और उन मामलों में ये किसी तरह उपयोगी भी नहीं होगा।  

Advertisement

बहरहाल, कानून आयोग को इस धारा की समाप्ति की सिफारिश करने में और नौ साल लगे, जो 2008 में हुआ, जब आयोग ने अपनी 210वीं रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिस पर केंद्र सरकार ने राज्यों से प्रतिक्रिया मांगी। दिसंबर 2014 में, सरकार ने संसद को बताया कि यह तय किया गया है कि IPC 309 को समाप्त किया जाएगा। 

Advertisement

 इसके औपचारिक रूप से लागू किया जाना अभी भी बाकी है, जबकि मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 की धारा 115 (1) आत्महत्या की कोशिश में असफल रहे लोगों को IPC की धारा 309 के दायरे से मुक्त रखता है, ये मानते हुए, कि जब तक अन्यथा साबित नहीं होता, ये लोग "गंभीर तनाव" से ग्रस्त हैं। 

Advertisement

(आदित्य भास्कर द्वारा अनुवादित)

Advertisement

Advertisement

Advertisement

Advertisement

Advertisement

Advertisement